लाल झंडा और लाल रंग का कम्युनिस्ट झंडा ही आदिवासियों का रहनुमा:फिल्म जय भीम में हिंदी पर थप्पड़
लोगों को इस फिल्म को देखते हुए भीमा-कोरेगाँव में हिंसा कराने वाले अर्बन नक्सलियों की याद आ सकती है। आखिर वो भी तो सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और नेता की भूमिका में ही थे न? जिन्होंने हिंसा भड़काई और तख्तापलट की साजिश रची।
तस्वीर साभार :ऑप इंडिया हिन्दीदक्षिण भारत की फिल्मों में परंपरा और धर्म का सम्मान किया जाता रहा है, मंदिरों के इर्दगिर्द दृश्य फिल्माए जाते रहे हैं और स्थानीय देवी-देवताओं को उच्च दृश्य से देखा जाता रहा है। लेकिन वहां भी कभी कभी ‘एक्सपेरिमेंट्स’ के नाम पर ‘कुछ भी’ करने की प्रथा हर जगह है। सूर्या की फिल्म ‘जय भीम’ इसका एक अच्छा उदाहरण है।
‘जय भीम’ एक ऐसी फिल्म है, जिसमें थ्रिल को जातिवाद और पुलिस क्रूरता के इर्दगिर्द बुनते हुए कहानी जरूर 90 के दशक के मध्य की ली गई है,वनवासियों की पीड़ा और पुलिस क्रूरता दिखाने के नाम पर वामपंथ का जो महिमामंडन किया गया है, वो तो बर्दाश्त के काबिल नहीं ही है।
फिल्म का एक दृश्य सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है, जिसमें पुलिस अधिकारी का किरदार निभा रहे प्रकाश राज तिलक लगाए एक व्यक्ति को थप्पड़ मार कर कहते हैं कि तमिल में बोलो। वो हिंदी में बोलने का प्रयास करता है, इसीलिए उसे थप्पड़ मारा जाता है। कथित रूप से जातिवाद के विरुद्ध बनाई फिल्म ने क्षेत्रवाद को ज़रूर आगे बढ़ाया है।
प्रकाश राज अब सफाई दे रहे हैं कि लोगों को ‘आदिवासियों की पीड़ा’ की जगह थप्पड़ दिखाई दे रही है। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों को ST समुदाय की समस्या की जगह, यही समझ में आया। लोगों की बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर रहे प्रकाश राज का ये भी कहना है कि 90 के दशक का कोई तमिल पुलिस अधिकारी हिंदी सुन कर ऐसी ही प्रतिक्रिया देगा, क्योंकि उसे ऐसा लगेगा कि सामने वाला तमिल जानते हुए भी दूसरी भाषा में बात कर जाँच को भटका रहा है।
फिल्म में मुख्य अभिनेता मद्रास हाईकोर्ट में एक अधिवक्ता होता है। खुद को दलितों के करीब दिखाए जाने के लिए उलझे हुए घुँघराले बाल होते हैं उसके। वो ‘मानवाधिकार मामलों’ की फीस भी नहीं लेता है। पुलिस की क्रूरता से लॉकअप कस्टडी में एक मौत का मामला सामने आता है और यही फिल्म की कहानी भी है कि कैसे कानून के जरिए दोषी पुलिसकर्मियों को सज़ा मिलती है।
इस फिल्म में पीड़ितों के विरुद्ध हिंसा को उसी तरह से प्रदर्शित किया गया है, ताकि दर्शकों के मन में सहानुभूति का भाव उत्पन्न हो और आरोपित पुलिसकर्मियों से वो घृणा करें। पुलिस जाति देख कर क्रूरता करती है, इसमें ये दिखाया गया है। अब तक के वास्तविक उदाहरणों में यही देखा गया है कि पद और रुपए में मदांध इंसान गरीबों पर अत्याचार करता है। यहाँ जाति ही सब कुछ है।
फिल्म में जब भी कहीं किसी गरीब के साथ अन्याय, या यूँ कहिए कि वनवासी समुदाय या दलितों के साथ अन्याय होता है तो लाल रंग का कम्युनिस्ट झंडा उठाए लोग ही सड़क पर मिलते हैं, जो उनके हक़ में न्याय की माँग करते हैं। झंडे पर हँसिया (हँसुआ) का निशान बना होता है। 90 के दशक के वनवासी समुदाय को साँप पकड़ते हुए, चूहे खाते हुए, ‘बड़ी जाति वालों’ को उनसे घृणा करते हुए और टूटे-फूटे कच्चे घरों में रहते हुए दिखाया गया है। लेकिन, दिक्कत गरीबी के प्रदर्शन से नहीं है।
कई लोगों को इस फिल्म को देखते हुए भीमा-कोरेगाँव में हिंसा कराने वाले अर्बन नक्सलियों की याद आ सकती है। आखिर वो भी तो सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और नेता की भूमिका में ही थे न? वनवासी समुदाय की आवाज़ उठाने के नाम पर उन्होंने हिंसा भड़काई और तख्तापलट की साजिश रची। कहीं इस फिल्म के माध्यम से ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति पैदा करने की कोशिश तो नहीं की गई है?
फिल्म के सबसे क्रूर किरदार, जो एक पुलिस इंस्पेक्टर का है – उसकी दीवार पर माँ लक्ष्मी की तस्वीर वाला एक कैलेंडर टँगा होता है। अर्थात, गुंडे हिन्दू धर्म को मानने वाले होते हैं। हालाँकि, अब ‘सांप्रदायिक सद्भाव को बरकरार रखने’ और ‘समावेशिता’ की बात करते हुए इस दृश्य को हटा दिया गया है। कहा गया है कि कोई समुदाय कहीं इसे सन्दर्भ से हट कर न ले ले, इसीलिए ऐसा किया गया है। उनका कहना है कि वो किसी की धार्मिक या राजनीतिक विचारधारा को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते। राजनीतिक रूप से ठेस वो पहुँचा भी नहीं सकते थे, क्योंकि तमिलनाडु का एक छोटा दल भी उनकी हेकड़ी गुम करने की ताकत रखता है।
मद्रास उच्च-न्यायालय में एक बुजुर्ग अधिवक्ता को दिखाया गया है, जो हमेशा ‘शिवाय नमः’ कहता रहता है। जाहिर है, भगवान का नाम लेने वाले फिल्मों में कभी अच्छे आदमी हो भी नहीं सकते। इस फिल्म में उसका कोई किरदार खास तो नहीं, एल्कीन एक मजाकिया और नकारात्मक व्यक्ति के रूप में उसका चित्रण किया गया है। अब ‘मूलनिवासियों’ और ‘द्रविड़ों’ को खुश करने के लिए ब्राह्मणों को गाली नहीं तो कम से कम उन्हें इस तरह से प्रदर्शित किया ही जा सकता है।
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